Wednesday, 12 May 2021

आखिरी कविता

ये आखिरी कविता है मतलब आखिरी

आखिरी मतलब मै सच बोलुंगा

आखिरी मतलब मैं नहीं दूंगा कोई झूठी, तसल्ली कोई झूठा दिलाशा

कोई झूठी कसम या कोई झूठा भरोसा

आखिरी मतलब मैं नहीं करूंगा नफरतें

मैं नही भेजूंगा लानतें, नहीं करूंगा शिकायतें

आखिरी मतलब मैं हिम्मत जुटा कर सच लिखूंगा

कम अल्फाजों में बेहद लिखूंगा

आखिरी मतलब मैं बता दूंगा कि मैनें इंतजार में तूम्हें लिखा

मेरी हर तलाश में तुम थी, अपने बैकस्पेस में तुम्हे झुपाया

मेरे हर अल्फाज में तुम थी

आखिरी मतलब मैं बता दूंगा कि 

हर रोज सुबह तुम्हारे मैसेज के उम्मीद में अपना फोन टटोला मैंने

हर सब उन कनवरसेशन को खोला बंद किया फिर खोला मैंने

हर रोज हर बार उसी दरवाजे को छुआ मैंने कि जानते हुए कि तुम नहीं हो यहा

फिर भी बस वहीं जा ठहरा मै

आखिरी मतलब मैं बता दूंगा तुम्हारे साथ गुजरे हर वक्त को कभी भुला नहीं मैंने

तुम्हारे बिन किसी हसीन ख्वाब देखा नहीं मैंने

आखिरी मतलब मैं तुम्हे ये भी बता दूंगा कि 

तुम्हारे जाने के बाद भी अपने बाईक को कभी धोया नहीं जहां से उस सीट पर तुम्हारी खुशबू आती थी 

हमारी उस रात के वस्ल के बाद अपनी उस कमीज कभी नहीं धोया उसे जिससे तुम्हारी महक आती थी

अपने बालों को उतना ही बिगाड़ रखा जितना तुम्हें रखना होता था

अपने शर्ट की स्लीव को वहीं तक लपेटा जहां तक तुम्हे ढलना होता था

आखिरी मतलब मैं बता दूंगा कि आज भी हर शाम वहीं मिलता हूं जहां हम मिला करते थे

मैं आज भी उसी मोड़ पर रूका रहता हूं जहां हम चला करते थे

मेरे हर अफसाने में आज भी नाम तुम्हारा ही रहता है

मेरे किस्सा कोई का हर लफ्ज भी आज कहानी तुम्हारी कहता हैं

आखिरी मतलब ये भी है कि मैं तुमसे कुछ सवालात करूंगा

तुम्हारे पुराने अक्स से आज फिर मुलाकात करूंगा

अच्छा बताओ ना बताओ क्या अब भी तुम वही मेरी टी-शर्ट पहतनी हो

गुस्सा आने पर अपने हाथों को किसके सीने पर पटकती हो

अच्छा बताओ ना तुम्हारे कलाई में उस कंगन का निशान बनता है

क्या तुम्हे आज भी उस किचन की खुशबू महकती है

अच्छा क्या कोई है जो तुम्हे अपने कहानी में बतौर हीर पेश करता है

क्या खुद रांझा बनकर कोई जमाने से बैर करता है

क्या कोई है जो तुम्हारे जुल्फ को अब कान के पीछे सरकाता है

या वो जो मोहब्बत के रूहानी किस्से सुनाता है

क्या कोई है जो तुम्हारे जोर से हसने पर तुम्हारा गम पहचान लेता है

या वो जो तुम्हारे सहम जाने पर तुम्हारा हाथ थाम लेता है

अच्छा क्या कोई है जो तुम्हें अपने काॅपी के आखिरी पन्ने पर लिखता है

क्या किसी को तुम्हारे आखों में अपना रहबर दिखता है

क्या कोई है जिसने तुम्हारे अंदर छुपी मासुमियत को पहचाना है

तुम्हारे यौवन से कई गुना ज्यादा तुम्हारे बचपन को जाना है

क्या कोई है जो तुम्हारे आसूंओ को पिया है

जिसने अपने सपनों से ज्यादा तुम्हारे सपनों को जीया है

क्या कोई है,

क्या कोई है जिस पर तुम्हे इश्क पर ज्यादा यकीन हुआ है

जिसने हर दफा तुम्हे नहीं तुम्हारे रूह को छुआ है

अच्छा बताओ ना क्या अब भी तुम एकदम से दूर चली जाती हो

क्या तुम अब भी सबकुछ बड़ी जल्दी भुल जाती हो

क्या अब भी तुम्हारे पर रूकने की कोई वजह नहीं होती

क्या अब तुम्हारे दिल में यादों की कोई जगह नही होती

क्या तुममे और मुझमें अब भी उतना ही फर्क है 

क्या हमारी जुदाई का सिर्फ एक ही सीने में दर्द है

आखिरी मतलब ये भी है कि हां मैंने नफरतों में लिखा है तुम्हें

लेकिन इश्क तुमसे हमेशा रहा 

हर रोज ताल्लुक तोड़ा है तुमसे कुछ यूं तााल्लुक हमेशा रहा

आखिरी मतलब ये भी है कि आज मैं तुम्हारे लिये दुआ करूंगा

कुछ इस तरह तुम्हे मुझसे हमेशा के लिए जुदा करूंगा

चलो तुम्हारे जिंदगी में बहार आए तुम्हारी जिंदगी गुलिश्ता हो

मेरे पास भी मैं रहूं और मेरी आखिरी कविता हो

मेरी आखिरी कविता हो....!

Monday, 1 June 2020

लॉकडाउन खुलने के बाद कुछ आवश्यकताएं हैं...

आवश्यकता है.

दुनिया के सारे फोटोग्राफर्स की ताकि जब लॉकडाउन खुले, दुनिया खिले और लोग गले मिलें तो उन पलों की तस्वीरें उतारी जा सकें। फोटोग्राफर्स के पास ये हुनर हो कि वो उस जगह पर ऐसे मौजूद रहें, जैसे कोई पेड़ चुपचाप सालों से खड़ा हो. इन फोटोग्राफर्स का काम होगा कि मुस्कुराते हुए आंसुओं के गिरने और गले मिलने को तस्वीरों में ऐसे पकड़ें जैसे एक सख्त बड़ी उंगली कोई नन्हा बच्चा पकड़ता और बताता है कि जिंदगी शुरू में कितनी मुलायम थी।

आवश्यकता है.

दुनिया के सारे सच्चे हिंदुओं की ताकि जब लॉकडाउन खुले और कोई टोपी लगाए सब्जी वाला आकर चिल्लाए तो सीढ़िया उतरते लोग दौड़ पड़ें। भले ही ये कहें कि अरे मुल्ला जी, आलू सही सही लगा लो। फिर हँसते-हँसते बात यूं सेट हो कि अच्छा पंड्डी जी, धनिया फ्री में उठा लो। थोड़े उस वैराइटी के हिंदू भी चाहिए जो किसी मुसलमान के खांसते-खांसते थूकने पर डरे नहीं, बल्कि देखते ही दौड़कर जाएं और पीठ सहलाने लगें, जैसे मां सहलाती हैं, जो मुस्लिम नाम वाले डिलिवरी बॉय को सामान लेने के बाद जब लौटाएं तो ये कहें-बेटा ठंडा पानी तो पी ले।


आवश्यकता है.

दुनिया के उन सारे इलाकों में रहने वाले उन लोगों की जिनके द्वारा डॉक्टरों, पुलिसवालों पर पथराव हुए। ताकि जब लॉकडाउन खुले तो उन बहादुर डॉक्टरों, पुलिसवालों और नर्सों से माफी मांगी जा सके जो गए तो थे जान बचाने लेकिन बड़ी मुश्किल से अपनी ही जान बचाकर घायल लौटे थे।

आवश्यकता है.

दुनिया की सारी जनता की ताकि जब लॉकडाउन खुले और सरकारें चुनावी रैलियों की तरफ बढ़ें. बसों, ट्रेनों को बुक करके भीड़ जुटाई जा रही हो. तब आवाम खड़ी होकर पूछ सके कि बस के कागज दिखाओ, इनकी फिटनेस बतला।

आवश्यकता है.

दुनिया के सारे थाली बजाने, फूल बरसाने और दीया जलाने वालों की ताकि जब लॉकडाउन खुले तो उन पलायन की प्रेग्नेंट औरतों, कंधे पर पत्नी बैठाए मर्दों, साइकिल चलाकर घायल पिता को घर पहुंचाने वाली बच्चियों, बेटे की मौत पर फोन पर रोने वाले रामपुकार यादवों को पुकारा जा सके।

आवश्यकता है.

दुनिया के सारे स्टैचू कहने वालों की ताकि जब लॉकडाउन खुले तो नीले आसमान, साफ नदियों, आसमां के उड़ते परिंदों, चहचहाती चिड़ियों को स्टैचू कहा जा सके. ताकि जब चिमनियों का धुआं फिर आसमान को मैला करने की ओर बढ़े तो कुदरत की खूबसूरती बचाई जा सके। खुद के इंडिविजुएल वादे रहे और ये मुरादें रहें कि अब सब बचा लेना है।

आवश्यकता है.

दुनिया के सारे बुलंद आवाज लगाने वालों की जिनकी आवाज सैकड़ों किलोमीटर दूर तक जाए है.  ताकि जब लॉकडाउन खुले तो यहीं दिल्ली, मुंबई, बैंगलोर जैसे शहरों से हाईवे जाती सड़कों की ओर मुंह करके चीखकर पुकारा जा सके....
ओ भईया.... लौट आओ....
माफ कर दो, तुम्हे तब रोक न ना पाए न तुम्हे घर भेज पाए ना.....
ओ भईया.... लौट आओ....

Sunday, 29 December 2019

ये साल भी जा रहा है, हर साल की तरह

ये साल भी जा रहा है,
हर साल की तरह,
कुछ ख्वाइशें पूरी होते-होते,
अधूरी रह गयी...
कुछ दर्द जिंदगी को जार-जार कर गए,
तो कुछ मरहम होठो पर,
हँसी के साथ आंसू लिए मिल गए...
शिकायत बहुत है, सवाल भी बेहिसाब थे..
सभी यूँ ही उदास अकेले,
पुरानी कैलेंडर की तरह रह गए,
तारीखों में जिंदगी सिमट गयी...
फिर नई यादो की तलाश में,

कुछ पाने की आस लिये,
कुछ बिखरे हुए विश्वास लिये,
इस की दहलीज पर,
हम भी खड़े है...
वो 4 साल की याद लिए
जो खो दिया है,उस दर्द में,
खुद को समेट कर,
जो पा लिया उस सुकून में
खुद को लपेट कर...
आने वाला साल का,
आगाज हम फिर करँगे,
तारीखे बदलेंगी जरूर,
कैलन्डर पलटते हैं पन्नो की तरह,
वक्त के साथ फिर,
दोहरायें जायेंगे हम सभी,
छूटता कुछ भी नही है इस जहाँ में,
सब यही रहता है,
सिर्फ उसकी सूरत बदल जाती है वक्त के साथ.
ये साल भी जा रहा है, हर साल की तरह....!!!

Thursday, 19 December 2019

सुनो दिसम्बर..जरा ठहरो..!!!

सुनो दिसम्बर..जरा ठहरो..
धीरे-धीरे गुजरो...
समेट तो लूं बिखरी हुई यादो को,
दर्ज तो कर लूँ दिल में कुछ तारीखों को,
जिनके साथ का वक्त कभी गुजरा नही...
बांध कर रख लूं...

उन्हें नजरो से जो छोड़ कर चले गए,
थाम लूं उन हाथो को,
जो बिछड़े तो है पर छूटे नही है...
सुनो दिसम्बर..जरा ठहरो..
जी तो लूँ उन लम्हो को,
जो ठहरें तो है पर अभी गुजरे नही है...

सुनो दिसम्बर..जरा ठहरो..!!!

Thursday, 17 October 2019

मैं आज भी पगली सा हूँ....!!!

वो चाँदनी रात, वो तुम्हारी बाते...
तुम कुछ भी कहती मैं लिख रहा था,
तुम को अल्फाजों में बांध रहा था....
और तुम नाराज भी होती कि,
क्यों लिख रहा हूँ मैं...
मैं हर बार कहता कि,
तुम्हे अपने पास संजो कर रख रहा हूँ...
और हसँ कर तुम कह देती कि,
तुम बिलकुल पगले हो....
और मैं भी मान लेता की,
हाँ मैं पगला ही सही...
जब तुम बाते करती थी ना,
तुम्हे सुनने चाँदनी का चांद भी,
नंगे पाँव जमी उतर आता था..

मुझे बिलकुल भी अच्छा नही लगता कि,
तुम्हे कोई भी सुने..
तो मैं तुम्हारी बातो को,
हमेशा के लिए अपने अल्फाजों में...
बाँध लेता था...
आज भी वो चाँदनी की रात है,
वही चांद है...
वही तुम्हारी बाते तो है,
मैं आज भी पगला सा हूँ वैसे ही...
पर तुम नही हो...!!!

Sunday, 22 September 2019

कैसे मैं लिखूं तुम पर कुछ तुम तो खुद में एक रचना हो

कैसे मैं लिखूं तुम पर कुछ तुम तो खुद में एक रचना हो
थोड़ी अलहड़ थोड़ी पागल एक कुचे में भरा सागर
आंखें तेरी मदीरा की गागर
बातों में जज्बात छुपे हैं मुस्कानों में हालात छिपे हैं
थोड़ी वृद्धि, थोड़ा बुद्धि, थोड़ा भोलापन, थोड़ा बचपन
सबका तू अनोखा मिश्रण
कई राज छिपाये बैठी है,
कई दावं लगाये बैठी है
कुछ सपनों में वो जीती है



कुछ सपनों को वो जीती है
ये दुनिया के वो सारे
धोखे दो आंखों से पीती है
एक अजब-गजब सी वो कहानी
जिसने पढ़ी बस उसने जानी
सह बनती वो मेरे लिए भी वो
जब मुझे खुद से बचना हो
कैसे मैं लिखूं तुम पर कुछ तुम तो खुद में एक रचना हो।

Sunday, 8 September 2019

वो एक कप कॉफी का साथ...

बस कुछ लम्हे होते थे हमारे पास....
और उन लम्हों में करनी होती थी......
हमें हजारों बात.......!
मेरे साथ होते हुए भी....
दुसरो को देखती.......
तुम्हारी वो शरारती आंखे..
उतनी ही शरारती थी...........
तुम्हारी वो बाते...............
तुम्हारी हर बात पर.......
मेरी मुस्कराती आखों का जवाब.....
कुछ यू था......
तुम्हारे साथ एक कप कॉफी का साथ......!!

सबसे नजर हट कर....
जब तुम्हारी मुझ पर नजर टिकती थी.....
तो कुछ सहम कर तुम्हारे चहरे से....
मैं नजरे फेर लेता था......
डरता था की कही....
तुम पढ़ न लो मेरी नजरो में......
मेरी दिल की बात.............
वो तुम्हारे कुछ पूछने पर......
मेरा मुस्करा देना.............मैं कुछ कहूँगां.....
तुम्हारी नजरो का वो इन्तजार करना...
नही पता की कॉफी कैसी थी......
नही जानता की......
वो वक्त क्यों इतनो जल्दी गुजर रहा था....
मैं उस गुजरते वक्त को थामना चाहता था........
तुम्हारे हाथ को थाम कर........
कुछ देर और बैठना चाहता था..........
कुछ यू था......
तुम्हारे साथ, एक कप कॉफी का साथ......!!