Monday, 31 December 2018

"अलविदा"


हाय! मैं जानता हूं कि हमे मिले अरसा हो गया है, कि हमने इतने दिन बात तक नहीं कि। लेकिन पिछले कुछ दिनों में हमारे बारे में बहुत कुछ सोचा और मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि आई मिस यू। ऐसा नहीं है कि जो कुछ हुआ मुझे उस बारे में कोई अफसोस नहीं है या मैं तुमसे दुबारा मिलना चाहता हूं। बस इतना कि आई मिस यू। कितनी अजीब बात है जिस इंसान को इतनी अच्छी तरह से जानता था आज वो एक अजनबी है। कभी-कभी कई दिन गुजर जाते है तुम्हारी याद आए।
अक्सर तुम्हारी यादों को एक गुमनाम अंधेरे में धकेलकर छोड़ आता हूं लेकिन फिर अचानक से कुछ दिख जाता है, चाहे वो तस्वीर जिसको मैंने बनाया था, कोई गिफ्ट, या फिर कभी-2 तुम्हारा यूं आॅनलाइन दिख जाना या फिर वो बेतुके से मैसेज जो एक दूसरे को लिखा करते थे और वो खोई हुई यादे जो सैलाब बनकर टूट पड़ते है मुझ पर। तब जी करता है मैं तुम्हे दुबारा मिलूं, तुम्हे बांहों में जकड़ लूं, पर ये सारे एहसास खोखले है। हम क्यों इतनी आसानी से भूल जाते हैं कि प्यार अक्सर वो नहीं होता जो हम समझते हैं। खैर मुझे अफसोस नहीं हमारी जुदाई की वजह थी जो आज भी बरकरार है। लेकिन शुरूआत में हमारी प्यार की कोई वजह नहीं थी, प्यार बस हो गया। वजाहें तो बाद में आई और तब से जो भी है इन्हीं वजाहों की बदौलत है, हमारी जुदाई का जिसकी कसुरवार तुम थे। अच्छा ही हुआ शायद कोई मुझे ऐसी मिल जाए जिसे कभी अलविदा कहने की जरूरत ही ना पड़े। लेकिन अभी एक खालीपन है, प्यार करने को दिल तरसता है। अब बस ये कहने की कोशिश कर रहा हूं कि तुम भी अच्छी हो कि तुमने वो प्यार पा लिया है जो हमारा प्यार कभी नहीं बन ldk, लेकिन एक अच्छी उम्मीद ये भी करता हूं कि इन वजाहों से पहले वाले रिश्ते को तुम भी याद करती होती, और तुम भी मुझे मिस करती होगी। 
‘‘अलविदा’’

Sunday, 24 June 2018

वो न जाने कब गैरों के होना सीख गए

वो प्यार मोहब्बत के अकीदतमंद बड़ी जल्दी नफरत करना सीख गए
हम तो उनके थे उन्हीं के रहे और वो न जाने कब गैरों के होना सीख गए

हम नावाकिफ थे इस बात से कि वो अजनबी इस कदर हो जायेंगे
नजर आते थे जो फोन के हर गलियारे में अब एक फोल्डर में सिमट कर रह जायेंगे
और हम नावाकिफ थे इस बात से कि वो इस रिश्ते को इतनी बेहरमी से तोड़ जायेंगे
कि हमे सबसे पहले जवाब देने वाले हमारा मैसेज को सीन करके छोड़ जायेंगे
हम शहरो-शाम मुनतजिर रहे उनके जवाबों के
और वो किसी दूसरी महफिल-ए चैट में रिप्लाई करना सिख गए
हम तो उनके थे उन्हीं के रहे और वो न जाने कब गैरों के होना सीख गए

और बड़ेे दिनों बात हमसे पूूछा हाल-ए-दिल उन्होंने
तो भईया हम भी खुद्दार थे मुस्कुराकर झूठ बोलना सिख गए
हम तो उनके थे उन्हीं के रहे और वो न जाने कब गैरों के होना सीख गए

हम नावाकिफ थे इस बात से कि लोग बदल भी जाया करते हैं
वो आंखों में आंखें डालकर किये हुए वादों से मुकर भी जाया करते हैं
और सदायंे आती थी जिनको हमारे सीने से
वो अब किसी और से लिपटना सिख गए
हम तो उनके थे उन्हीं के रहे और वो न जाने कब गैरों के होना सीख गए

और दिल में आशियां बनाया था जिन्हांेने
और अब हम जैसे ही आनलाईन आते हैं तो वो नजरे चुराकर आॅफलाइन होना सीख गए
हम तो उनके थे उन्हीं के रहे और वो न जाने कब गैरों के होना सीख गए

हम नावाकिफ थे इस बात से कि वो चेहरे को साफ और दिल को मैला रखते हैं
कुछ लोग हंसी ऐसे भी हैं जो खिलौने नहीं जज्बातों से खेला करते हैं
हम आशिक नादान थे ता-जिंदगी भीतर-बाहर एक से रहे
वो कम्बखत बेवफाई करते-2 रोजाना जिल्द बदलना सिख गए
हम तो उनके थे उन्हीं के रहे और वो न जाने कब गैरों के होना सीख गए

हमने उनके साथ अर्श के सपने देखे थे
और हुए हकीकत से रूबरू तो ख्वाहिशें कुचलना सीख गए
हम तो उनके थे उन्हीं के रहे और वो न जाने कब गैरों के होना सीख गए

हम नावाकिफ थे इस बात से कि वक्त हमारे इतना खिलाफ हो जायेगा
कि उनकी मेहंदी में वो चुपके से बनाया हुए मेरे नाम का वो आर अक्षर
इस कदर किसी और के नाम हो जाएगा
हम उनके नाम का हर्फ हथेली पर नहीं दिल पर लिखना चाहते थे
इसलिए दर्द होता रहा हर्फ बनता रहा और हम दिल कुरेदना सिख गए
हम तो उनके थे उन्हीं के रहे और वो न जाने कब गैरों के होना सीख गए

हम उनपे मरकर जीना चाहते थे
हुए अलहदा उनसे जब से जीते जी मरना सिख गए
हम तो उनके थे उन्हीं के रहे और वो न जाने कब गैरों के होना सीख गए

कि हम नावाकिफ थे इस बात से कि वो हमारे बिना भी रह सकते थे
जो फसाने उन्होंने हमसे कहे थे उतनी ही सिद्दत से किसी और से भी कह सकते थे
अरे हमने तो सोना समझ यूं पकड़े रखा था उनको
और वो कम्बखत धूल थे निकले कि बड़े इतमिनान से फिसलना सिख गए
हम तो उनके थे उन्हीं के रहे और वो न जाने कब गैरों के होना सीख गए

कि हम कुछ देर जो दूर हुए क्या थे उनसे
कि अब वो हमारे बिना ही रहना सीख गए
हम तो उनके थे उन्हीं के रहे और वो न जाने कब गैरों के होना सीख गए

Monday, 11 June 2018

मुझे फर्क नहीं पड़ता - Part-2

एक वक्त था जब तुझसे बेइंतहां प्यार करता था
अब तो तू खुद मोहब्बत बन चली आए तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता,
एक वक्त था जब तेरी परवाह किया करता था
अब तो तू मेरे खातिर फना भी हो जाए तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता,
एक वक्त था जब तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

एक वक्त था जब तेरी आईडी के न जाने कितने चक्कर लगाता था
तेरी हर पोस्ट के हर स्टेटस के मायने निकाला करता था
लेकिन अब सुन ले जो मुसलसल खेला है फ्रैै्रन्ड व अनफ्रैै्रन्ड का खेल मेरे साथ
जा मेरी आईडी का ताजिंदगी भर तेरे नए आईडी लिस्ट में अनफ्रैै्रन्ड रख ले
मुझे फर्क नहीं पड़ता
एक वक्त था जब तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

याद कर वो वक्त महज तेरी डीपी देखकर मेरी धड़कने तेज हो जाया करती थी
अब तू चाहे कितनी भी अपनी खुबसूरत तस्वीर नये फेसबुक आईडी पर लगाले
मुझे फर्क नहीं पड़ता
एक वक्त था जब तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

एक वक्त था जब तुझे तकलीफ में देखकर मेरी आंखे भर आया करती थी
तुझे कोई खरोच भी आ जाए तो मेरी सांस अटक जाया करती थी
लेकिन अब सुन ले बेफिक्री का सुरूर है मुझमें कुछ ऐसा कि
अब तो कम्बखत तेरी सांसे भी थम जाये तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता
एक वक्त था जब तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

हां अब तेरा कहना भी वाजिब कि इसे इश्क नहीं कहते
जो इस कविता को पढ़कर एक बेवफा को मेरी मोहब्बत पर शक हो जाए
मुझे फर्क नहीं पड़ता
एक वक्त था जब तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

एक वक्त था जब तेरे तौरे इश्क की मिशालें दिया करता था
प्यार मोहब्बत के मायने में बस कस्में वादे लिखा करता था
कि क्या कमाल हस्र किया है तूने वफा-दाराने-उल्फत का
कि अब ये सारा का सारा शहर बेवफा हो जाए तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता
एक वक्त था जब तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

हां माना कि तेरी खुबशुरती मशहूर है दुनियां जहां में
अब इस कविता से तेरी बेवफाई के चर्चे हो जाए तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता
एक वक्त था जब तुझसे बेइंतहां प्यार करता था


एक वक्त था जब तेरी एक झलक पाने को तरस जाया करता था
तू जिस आईडी पर आॅनलाइन नजर आती थी मैं बस वहीं ठहर जाया करता था
अरे बिठा रखा था जो मुद्दतों से इन पलकों पर मैंने
उसूलों से तो गिर गई है अब नजरांे से भी गिर जाए तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता
एक वक्त था जब तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

बदसिरत हो अगर तो ये फिजुल है ये खुबसूरती तुम्हारी
फिर खुदा तुम्हें हसीं चेहरे बख्श जाए तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता
एक वक्त था जब तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

एक वक्त था जब तुझे शहरों शाम बैठकर मनाया करता था
गुस्ताखियां तेरी हुआ करती थी और दरख्वास्तें मैं किया करता था
तेरी उस बेवजह रूठने को मनाया है मैंने न जाने कितनी दफा
कि अब ये पूरी की पूरी कायनात खफा हो जाए तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता
एक वक्त था जब तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

अरे जो मेरी ना हो सकी वो उसकी क्या होगी
अब भले कुछ वक्त के लिए किसी गैर का दिल बहल जाए तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता
एक वक्त था जब तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

एक वक्त था जब तेरी महक पाने को तू जहां से गुजरती थी मैं वहां से गुजरता था
जो हवा तूझे छुती है वो हवा मुझे छू जाएगी इस भरोसे से चलता था
अब तो सूफी हूं कि खुशबू है मेरी खुद की सांसों मेें
अब तो तू इस हवा में भी घुल जाए तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता
एक वक्त था जब तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

कि जब से मिट्टी होना पसंद आया है मुझको
फिर भले महलों में आशियां हो जाए तो 
मुझे फर्क नहीं पड़ता
एक वक्त था जब तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

खैर अब तुझसे ना नफरत है, ना मोहब्बत है कोई गिला शिकवा नहीं है
ना कुछ अनसुना है, ना अनकहा है, बचा कोई सिलसिला नहीं है
अरे महज इन कविताआंे मंे जिक्र बचा है तेरा
और सुन ले कि अब इतना ताल्लुक भी खत्म हो जाए तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता
एक वक्त था जब तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

राब्ता ना हो इन बेवफाओं तो ही बेहतर हो मेरे यार
फिर रिश्ता भले काफिर दिलों से हो जाए तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता
एक वक्त था जब तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

Monday, 7 May 2018

मुझे तो मेरा फकत मिट्टी होना पसंद आया

यूं तो हवा पानी आकाश अग्नि सब कुछ था मैं
लेकिन मुझे तो मेरा फकत मिट्टी होना पसंद आया

कि मेरे नाम में जो आई था उसे कभी बड़ा होने नहीं दिया मैंने
मुझे हमेशा मेरे नाम में आई पर वो छोटी सी बिंदी का होना पसंद आया
यूं कद तो दरख्तों के भी देखे हैं ऊंचे बहुत मैंने
लेकिन उन टहनियों का हमेशा नीचे की ओर झुकी होना मुझे पसंद आया
और भले दुनिया देखती होगी आकाश को चुमती हुई वन इमारतों को साहब
लेकिन मुझे तो नींव का उन भारी भरकम पत्थरों के नीचे दबी होना पसंद आया


यूं तो कारें दौड़ाते देखा है बच्चों को आंगन में
लेकिन बचपन को तो असल में कागज की बनी वो कश्ती होना पसंद आया
पर क्रस तो जमाने को हुआ है भले कैन्डी से बहुत
लेकिन मुझे तो नोकिया 11 सौ पर वो सांप की लम्बी पूंछ वाला गेम का होना पसंद आया
यूं तो हवा पानी आकाश अग्नि सब कुछ था मैं
लेकिन मुझे तो मेरा फकत मिट्टी होना पसंद आया

यूं दौड़ रहे थे सब लोग इस तरह कि होड़ मची थी जैसे अव्वल आने की
भागते देखकर सबको मुझे उस एग्जाम के रिजल्ट में आखिरी आना पसंद आया।
और जहां आसान रास्ते ढ़ूंढ रहे थे बाजार में सब दौलत, शौहरत, कामयाबी के
वहीं मेरे उंगलियों का यूं लिख-लिख कर खुरदुरी होना पसंद आया
यूं तो हवा पानी आकाश अग्नि सब कुछ था मैं
लेकिन मुझे तो मेरा फकत मिट्टी होना पसंद आया

यूं तो हजार किस्म की तमाम चोटें मिली थी इस जिंदगी के सफर में
लेकिन इस दिल को तो उन्हीं के बेवफाई के हाथों जख्मी होना पसंद आया
और भले मिलियंस हो गऐ मेरे चाहने वाले और हजारों मैसेजेस होते हैं मेरे इनबाॅक्स में
लेकिन मेरी आईडी का किसी की आईडी लिस्ट में न होना पसंद आया
यूं तो हवा पानी आकाश अग्नि सब कुछ था मैं
लेकिन मुझे तो मेरा फकत मिट्टी होना पसंद आया

जुल्म किसे सितम ढाये हमपे क्या बताऊं उन्होंने क्या-2 किया
और बदले में हमें वो फर्क नहीं पड़ता शायरी होना पसंद आया
और भले सुबह की चाय तुम पीती हो तुम अपने नये हमसफर के साथ अक्सर
लेकिन मेरे जुबां को तो वही बस ब्लैक टी को पीकर गले का सरसराहट होना पसंद आया
यूं तो हवा पानी आकाश अग्नि सब कुछ था मैं
लेकिन मुझे तो मेरा फकत मिट्टी होना पसंद आया

कोई बात नहीं मुड़कर तो दोबारा देखा भी नहीं तुमने जाते हुए मुझको
लेकिन उस वक्त उस मंजर को तो मेरा वहीं का वहीं होना पसंद आया
और शायद भीतर लिये आज भी घुमता हूं तुम्हें हर गली हर शहर पर
मुझे इस फरेबी दुनिया में अपनी मोहब्बत का असली होना पसंद आया
यूं तो हवा पानी आकाश अग्नि सब कुछ था मैं
लेकिन मुझे तो मेरा फकत मिट्टी होना पसंद आया

यूं इल्जाम लगे थे ढेरों मुझ पर लेकिन कभी आंच भी न आयी मुझ पर
कुछ इस तरह से मेरा खुदा की अदालद से बरी होना पसंद आया
और खुदा मान बैठें थे इस जमाने में जहां लोग खुद को
वहीं राशिद को तो बस फकीर सुफी शायर बनना पसंद आया
यूं तो हवा पानी आकाश अग्नि सब कुछ था मैं
लेकिन मुझे तो मेरा फकत मिट्टी होना पसंद आया

Friday, 13 April 2018

मुझे फर्क नहीं पड़ता

एक वक्त था कि तुझसे बेइंतहां प्यार करता था
अब तो तू खुद मोहब्बत बन चली आए तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता,
एक वक्त था जब तेरी परवाह किया करता था
अब तो तू मेरे खातिर फना भी हो जाए तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता, एक वक्त था कि तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

एक वक्त था जब तुझे हजारों मैसेजेस लिखा करता था
और कोई काम न था मेरा, बस दिन भर तेरा लास्ट सीन देखा करता था
अब तू सुन ले, अब तो अरसा बीत गया है वीजीट किए हुए तेरी पुरानी प्रोफाईल को
जा-जा अब तू चाहे 24 घण्टे आॅनलाइन रहले अपने नये आईडी पर,
मुझे फर्क नहीं पड़ता, एक वक्त था कि तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

एक वक्त था जब तुझसे बिछड़ जाने का डर लगा रहा था
और तू कहीं छोड़ न दे, इस ख्याल में मैं सहमा-सहमा सा रहता था
लेकिन अब सुन तू ले इतना जलील हुआ हूं तेरी इश्क में,
इतना जलील हुआ हूं तेरी इन रोज-रोज की छोड़ने-छाड़ने की बातों से कि
अब तू एक क्या, सौ मर्तबा छोड़ जाये तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता, एक वक्त था कि तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

एक वक्त था जब तुझ बिन एक पल न रह सकता था,
बेचैन गुमशुदा अकेलेपन से डरता था
लेकिन अब तू सुन ले, कि इतना वक्त बीता चुका हूं इस अकेलेपन में कि,
अब तो ताउम्र तन्हां रहना पड़ जाये तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता, एक वक्त था कि तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

एक वक्त था जब तुझे कोई छू लेता तो मेरा खून खौल उठता था
और इसलिए मैं इन हवाओं से बैर पाला करता था
अरे अपने हुस्न के सिवा कुछ नहीं है तेरे पास अगर
तो जा-जा तू किसी के साथ हम बिस्तर भी हो जाए तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता
इतना गुरूर किया तूने अपने इस मिट्टी के जिस्म पर तो
जा-जा ये तेरा जिस्म किसी और का हो जाए
मुझे फर्क नहीं पड़ता, एक वक्त था कि तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

एक वक्त था जब पांच वक्त की नमाजें पढ़कर तेरे लिए खुदा से मन्नते मांगता था,
अरे मुझे खुद तो कुछ चाहिए न था, सिर्फ तेरे लिए अपने उस खुदा को आजमाता था
लेकिन अब तू सुन ले अब तो ना झुकता हूं, न पूजता हूं न मानता हूं किसी को
अब तो भले तू खुद खुदा बन चली आए तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता, एक वक्त था कि तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

एक वक्त था जब शेर लिखा करता था तेरे लिऐ और सुनाता था महफिलों में
अरे अब तो अरसे बाद लिखी है ये अधूरी सी कविता तूझ पे,
और सुन ले, आगे से कुछ ना भी लिख जाए तो,
मुझे फर्क नहीं पड़ता, एक वक्त था कि तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

बताना तुझे मिल जाए मुझ जैसा कोई और अगर, जा-जा तू औरों को आजमा ले
मुझे फर्क नहीं पड़ता, एक वक्त था कि तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

एक वक्त था जब तुझे इन हजारों की भीड़ में भी तेरी आईंडी को पहचान लिया करता था
किसी और की डीपी में होती अगर तो एहसासों से पहचान किया करता था
अरे अब तो निगाहों से ओझल किया है मैंने तुझे इस कदर
कि तू मेरी कविता को चोरी-चोरी पढ़ भी रही है तो,
मुझे फर्क नहीं पड़ता, एक वक्त था कि तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

खैर फिर भी करता हूं शुक्रिया तेरा, तूझे खोने मैंने बहुत कुछ पा लिया है
नजमें, गजलें, शायरियां सब मिल गई है मुझे, और इन्होंने तो जैसे मुझे गले से लगा लिया है
अब तो मुझे सुनने वाले भी चाहने वाले भी और दाद देने वालें भी है,
और कुछ दिन ना लिखू तो फोन करके गुजारिश करवाने वाले भी है
लेकिन अब तू सून ले अब तो इतना बेखौफ हो गया हूं कि अब ये सब भी छोड़ जाए तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता, एक वक्त था कि तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

अरे खुद ही में मस्त हो गया है तेरा ये राशिद इतना, अब तो कोई सुनने आए या न आए
मुझे फर्क नहीं पड़ता, एक वक्त था कि तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

खैर चाहता तो नहीं था तुझे इस तरह यूं बेनकाब करूं सबके सामने
लेकिन सुन ले एक बेवफा मेरी कलम से बेईज्जत हो जाए तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता, एक वक्त था कि तुझसे बेइंतहां प्यार करता था

याद कर वो वक्त जब एक लफ्ज नहीं सुन पाता था मैं तेरे खिलाफ
और अब देख-देख तेरे इस तौहिन पर तालियांें पर तालियां बज रही हैं तो
मुझे फर्क नहीं पड़ता, एक वक्त था कि तुझसे बेइंतहां प्यार करता था।।

Wednesday, 7 March 2018

वूमेन डे...


लीजिये ये इक दिन निर्धारित किया गया है,


स्त्री के लिए, कहते है कि,

स्त्रियों के सम्मान के लिए ये दिन चुना गया है...

पर मैं आज तक समझ नही पाया,

कि क्या सच में किसी दिन की जरुरत पड़ती है,

स्त्री को सम्मान देने के लिए..

जो स्त्री सृष्टि को जन्म देती है,

जो खुद आदिशक्ति है..

क्या उसे किसी दिन की जरुरत है..

ये सिर्फ कुछ लोगो ने अपनी,

आत्मसंतुष्टि के लिए,

तीन सौ पैसठ दिन,

जिस स्त्री को नजर अंदाज करते है,

उन्होंने इक दिन बना दिया,

और ये जता दिया कि,

हम स्त्री का सम्मान करते है....

और स्त्री ने भी मुस्करा कर,

उनका ये इक दिन का सम्मान रख लेती है....

और पूछती है कि कभी कोई,

‘‘मैन डे’’ क्यों नही मनाया जाता?

क्यों कि इक स्त्री ने,

पुरुष को हमेशा सम्मान देती है,

पिता के रूप में, भाई के रूप में, पति के रूप में..

उसने सबकी भावनाओ को,

उनके बिना कहे समझा है,

बिना किसी स्वार्थ के, निश्छल,

हर रिश्ते को निभाती है...

तभी तो ये ‘वूमेन डे’ मानाने वालो को,

कभी ‘मैन डे’ की जरुरत नही महसूस की...

हम स्त्री के आत्मसम्मान की बात करते है,


पर हम ये भूल जाते है, कि

जिस स्त्री ने मां बनकर हमे सम्मान करना सिखाया है,

वो खुद अपने आत्मसम्मान की रक्षा कर सकती है,

और गर कही वो अपना आत्मसम्मान छोड़ती है,

तो इसका अर्थ ये नही कि,

वो कमजोर है, मुर्ख है..

बल्कि वो हमे बहुत प्यार करती है,

रिश्तों को संजोना जानती है...

इस सृष्टि में इक मात्र स्त्री ही है,

जो अपने रिश्तों के लिए,

किसी भी हद तक जा सकती है...

जिस स्त्री ने आपको अपने माथे पर सजा कर,

आपको जो सम्मान दिया है...

उसकी कीमत ये इक दिन ‘वुमेन डे’

तो नही हो सकता है...

चलिये इस बार कुछ ऐसा करिये,

कोई संकल्प ऐसा लीजिये,

कि आपको किसी भी स्त्री के लिए,

‘वुमेन डे’ ना मनाना पड़े...